विश्व के प्रथम शल्य चिकित्सक सुश्रुत के बारे में जाने...........
विश्व के प्रथम शल्य चिकित्सक सुश्रुत के बारे में जाने...........
हमारे वेदों में वर्णित शल्यचिकित्सा के ज्ञान को क्रमबद्ध रूप देने वाले आचार्य सुश्रुत Sushruta के जन्म एव कार्यकाल के बारे में केवल अनुमान ही लगाये जा सकते है | उनका जन्म ऋषि विश्वामित्र के कुल में हुआ था और उनकी अदभुद रचना “सुश्रुत सहिंता ” का रचना काल ईसा पूर्व छठी शताब्दी माना जाता है | आचार्य सुश्रुत Sushruta ने शल्य-चिकित्सा ज्ञान किस प्रकार पाया , इस बारे में मात्र अनुमान ही लगाया जा सकता है | दिवोवास नामक चिकित्सा शास्त्री काशी नरेश भी थे | उनका दूसरा नाम धन्वंतरि भी था | उस काल में चिकित्सको को धन्वंतरि भी कहा जाता था | आचार्य सुश्रुत का जन्म भी ऐसे ही कुल में हुआ था |
शल्य-चिकित्सा का नामकरण कैसे हुआ , इसका आधार यह है कि प्राचीन काल में तमाम युद्ध होते है जिनमे सैनिको के हाथ-पैरो में तीर और भाले घुस जाते थे और उनमे से अनेक अंग-विहीन हो जाते थे | उन्हें स्वस्थ करने के लिए चीर फाड़ की जाती थी जिसमे असहनीय पीड़ा होती थी | शल्य शब्द का अर्थ पीड़ा होता हो | इस पीड़ा को दूर करने के लिए औषधियो एव मन्त्रो का सहारा लिया जाता था |आचार्य सुश्रुत के काल में पूर्व वैदिक चिकित्सा ज्ञान इधर उधर बिखरा हुआ था और तत्कालीन शल्य-चिकत्सक उसका समुचित उपयोग नही कर पाते थे | वो बड़ी कठिनाई से शरीर में चुभे तीरों आदि को निकाल पाते थे और कुचले हुए अंगो को काट पाते थे असाधारण पीड़ा के शमन के लिए उनके पास प्रभावी उपाय नही था और इस कारण लोग औषधियो एव मन्त्रो पर अधिक निर्भर थे |
भारतीय वैज्ञानिक जैसे अब्दुल कलाम,सुश्रुत,रमन,आर्यभट्ट आदि के बारे में जानने के लिए क्लिक करे....
आचार्य सुश्रुत Sushruta ने लम्बी साधना की और शल्यचिकित्सा की तत्कालीन पद्धतियो को परिष्कृत किया और अपनी कई नई विधिया भी विकसित की | शल्यचिकित्सा हेतु उन्होंने अनेक यंत्र एवं उपकरण भी विकसित किये | आचार्य सुश्रुत ने परिष्कृत एव नव विकसित शल्यचिकित्सा ज्ञान को अपनी 120 अध्याय वाली पुस्तक में कलमबद्ध भी किया| उन्होंने चीर फाड़ के नये तरीक विकसित किये और अपने शिष्यों को लौकी ,तरबूज ,कद्दू और अन्य फलो को काट-काटकर उन विधियो को समझाया | शरीर छेदन के लिए उन्होंने मोम के पुतले एवं मरे हुए जानवरों को काटकर अभ्यास करवाया |
उस समय के अनुसार उनकी विधिय अदभुद थी | वो अच्छे शरीरवाले शव को घासफुंस से ढककर नदी के जल में ढककर रख देते थे | इससे शरीर की त्वचा अलग हो जाती थी | इसके बाद वो अपने विध्यार्हियो को शरीर के मांसपेशियों,हड्डियों ,अंदरुनी अंगो का अध्ययन कराते थे | वो शरीर के मर्म स्थलों से भी उनका परिचय करवाते थे ताकि शल्यचिकित्सा की जा सके | शरीर के विभिन्न अंगो को सुरक्षित एव सावधानीपूर्वक चीर फाड़ के लिए उन्होंने 101 यंत्रो एवं उपकरणों का भी विकास किया था जिनमे से अनेक आज भी प्रयोग होते है |
उन्होंने शल्यचिकित्सा के बाद शरीर को वापस सीने की तकनीक भी विकसित की थी |
शल्यचिकित्सा के दौरान पूर्ण सफाई और शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने ऑपरेशन से पूर्व हवन का प्रावधान किया था | शल्यचिकित्सा से पूर्व रोगी को मदिरापान कराया जाता था और आचार्य को इसके विभिन्न गुणों जैसे एंटीसेप्टिक होने का भी पूर्ण ज्ञान था|
आचार्य सुश्रुत की “सुश्रुत सहिंता” में शरीर सरंचना ,कार्य सहिंता ,स्त्री रोग , मनो रोग , नेत्र एव सर रोग , औषधि विज्ञानं ,शल्य विज्ञानं और विष विज्ञानं का विस्तृत विवरण है | इसमें नाक , कान ,होंठो की प्लास्टिक सर्जरी का भी विवरण है | सफल चिकित्सक बनने के लिए आवश्यक गुणों का बखान करते हुए उन्होंने पुस्तकीय ज्ञान और प्रायोगिक ज्ञान पर बल दिया |
आचार्य सुश्रुत Sushruta जीव विज्ञान एक साथ साथ वनस्पति विज्ञान में भी पारंगत थे उन्होंने वनस्पतियों ,मनुष्यों एव पशुओ पर पड़ने वाले मौसमी प्रभावों का भी वर्णन किया है | आचार्य सुश्रुत के अनुसार स्वास्थ्य केवल शारीरिक नही होता है बल्कि मानसिक भी होता है | इसके लिए आनन्दमाय जीवन ,अच्छा पौष्टिक भोजन , अपशिष्ट पदार्थो का समुचित निष्काशन , शरीर एवं मन के बीच बेहतर समन्वय आव्श्कय है | उस काल में युद्धों एव शिकार में अनेक लोग घायल हो जाते थे | अनेक लोगो को दंडस्वरुप अपने अंग जैसे नाक , कान आदि गंवाने पड़ते थे | इस कारण शल्यचिकित्सा की बहुत आवश्यकता पडती थी |
आचार्य सुश्रुत Sushruta से पूर्व भी शरीर के एक अंग से मांस निकालकर दुसरे स्थान पर स्थापित करने का प्रचलन था पर आचार्य सुश्रुत ने इसे ओर अधिक प्रभावी बनाया | उन्होंने चेहरे आदि पर विकृतियों , कटी नाक के स्थान पर नई नाक स्थापित करने की विधिया विकसित की थी | इसके लिए उन्होंने ललाट से त्वचा लेना आरम्भ किया था | वो किसी एक स्थान से त्वचा लेकर दुसरे स्थान पर लगा देते थे | आज से 2000 वर्ष पूर्व आचार्य सुश्रुत की लोकप्रियता चरम सीमा पर पहुच गयी थी |
आचार्य सुश्रुत Sushruta की किताबी का कई विदेशी भाषाओ में अनुवाद हुआ था | अरबी अनुवाद “किताबे सुसतरन” का अरब जगत ने भरपूर लाभ उठाया था | इरानी चिकित्सा शास्त्री “राजी ” ने आचार्य सुश्रुत के ज्ञान पर आधारित पुस्तक लिखी जिसमे हल्दी एवं लहसुन आदि के गुणों का वर्णन किया गया | धीरे धीरे उनका ज्ञान रूस भी पहुचा और अंग्रेज मात्र 200 वर्ष पूर्व उनके प्लास्टिक सर्जरी को अपने यहाँ ले गये और आगे विकसित किया था |आचार्य द्वारा विकसित शल्यचिकित्सा विधि , पट्टी बाँधने , सिलने आदि की विधिया आज भी उपयोग में आती है | नागर्जुन नामक महान चिकित्सा शास्त्री ने ” सुश्रुत सहिंता ” का संपादन कर उसे नया स्वरुप प्रदान किया था | यह ग्रन्थ आज भी अनुसन्धान का विषय है | उनकी इन्ही सब खोजो के कारण उन्हें “विश्व के प्रथम शल्य चिकित्सक ” माना जाता है |
हमारे वेदों में वर्णित शल्यचिकित्सा के ज्ञान को क्रमबद्ध रूप देने वाले आचार्य सुश्रुत Sushruta के जन्म एव कार्यकाल के बारे में केवल अनुमान ही लगाये जा सकते है | उनका जन्म ऋषि विश्वामित्र के कुल में हुआ था और उनकी अदभुद रचना “सुश्रुत सहिंता ” का रचना काल ईसा पूर्व छठी शताब्दी माना जाता है | आचार्य सुश्रुत Sushruta ने शल्य-चिकित्सा ज्ञान किस प्रकार पाया , इस बारे में मात्र अनुमान ही लगाया जा सकता है | दिवोवास नामक चिकित्सा शास्त्री काशी नरेश भी थे | उनका दूसरा नाम धन्वंतरि भी था | उस काल में चिकित्सको को धन्वंतरि भी कहा जाता था | आचार्य सुश्रुत का जन्म भी ऐसे ही कुल में हुआ था |
शल्य-चिकित्सा का नामकरण कैसे हुआ , इसका आधार यह है कि प्राचीन काल में तमाम युद्ध होते है जिनमे सैनिको के हाथ-पैरो में तीर और भाले घुस जाते थे और उनमे से अनेक अंग-विहीन हो जाते थे | उन्हें स्वस्थ करने के लिए चीर फाड़ की जाती थी जिसमे असहनीय पीड़ा होती थी | शल्य शब्द का अर्थ पीड़ा होता हो | इस पीड़ा को दूर करने के लिए औषधियो एव मन्त्रो का सहारा लिया जाता था |आचार्य सुश्रुत के काल में पूर्व वैदिक चिकित्सा ज्ञान इधर उधर बिखरा हुआ था और तत्कालीन शल्य-चिकत्सक उसका समुचित उपयोग नही कर पाते थे | वो बड़ी कठिनाई से शरीर में चुभे तीरों आदि को निकाल पाते थे और कुचले हुए अंगो को काट पाते थे असाधारण पीड़ा के शमन के लिए उनके पास प्रभावी उपाय नही था और इस कारण लोग औषधियो एव मन्त्रो पर अधिक निर्भर थे |
भारतीय वैज्ञानिक जैसे अब्दुल कलाम,सुश्रुत,रमन,आर्यभट्ट आदि के बारे में जानने के लिए क्लिक करे....
आचार्य सुश्रुत Sushruta ने लम्बी साधना की और शल्यचिकित्सा की तत्कालीन पद्धतियो को परिष्कृत किया और अपनी कई नई विधिया भी विकसित की | शल्यचिकित्सा हेतु उन्होंने अनेक यंत्र एवं उपकरण भी विकसित किये | आचार्य सुश्रुत ने परिष्कृत एव नव विकसित शल्यचिकित्सा ज्ञान को अपनी 120 अध्याय वाली पुस्तक में कलमबद्ध भी किया| उन्होंने चीर फाड़ के नये तरीक विकसित किये और अपने शिष्यों को लौकी ,तरबूज ,कद्दू और अन्य फलो को काट-काटकर उन विधियो को समझाया | शरीर छेदन के लिए उन्होंने मोम के पुतले एवं मरे हुए जानवरों को काटकर अभ्यास करवाया |
उस समय के अनुसार उनकी विधिय अदभुद थी | वो अच्छे शरीरवाले शव को घासफुंस से ढककर नदी के जल में ढककर रख देते थे | इससे शरीर की त्वचा अलग हो जाती थी | इसके बाद वो अपने विध्यार्हियो को शरीर के मांसपेशियों,हड्डियों ,अंदरुनी अंगो का अध्ययन कराते थे | वो शरीर के मर्म स्थलों से भी उनका परिचय करवाते थे ताकि शल्यचिकित्सा की जा सके | शरीर के विभिन्न अंगो को सुरक्षित एव सावधानीपूर्वक चीर फाड़ के लिए उन्होंने 101 यंत्रो एवं उपकरणों का भी विकास किया था जिनमे से अनेक आज भी प्रयोग होते है |
उन्होंने शल्यचिकित्सा के बाद शरीर को वापस सीने की तकनीक भी विकसित की थी |
शल्यचिकित्सा के दौरान पूर्ण सफाई और शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने ऑपरेशन से पूर्व हवन का प्रावधान किया था | शल्यचिकित्सा से पूर्व रोगी को मदिरापान कराया जाता था और आचार्य को इसके विभिन्न गुणों जैसे एंटीसेप्टिक होने का भी पूर्ण ज्ञान था|
आचार्य सुश्रुत की “सुश्रुत सहिंता” में शरीर सरंचना ,कार्य सहिंता ,स्त्री रोग , मनो रोग , नेत्र एव सर रोग , औषधि विज्ञानं ,शल्य विज्ञानं और विष विज्ञानं का विस्तृत विवरण है | इसमें नाक , कान ,होंठो की प्लास्टिक सर्जरी का भी विवरण है | सफल चिकित्सक बनने के लिए आवश्यक गुणों का बखान करते हुए उन्होंने पुस्तकीय ज्ञान और प्रायोगिक ज्ञान पर बल दिया |
आचार्य सुश्रुत Sushruta जीव विज्ञान एक साथ साथ वनस्पति विज्ञान में भी पारंगत थे उन्होंने वनस्पतियों ,मनुष्यों एव पशुओ पर पड़ने वाले मौसमी प्रभावों का भी वर्णन किया है | आचार्य सुश्रुत के अनुसार स्वास्थ्य केवल शारीरिक नही होता है बल्कि मानसिक भी होता है | इसके लिए आनन्दमाय जीवन ,अच्छा पौष्टिक भोजन , अपशिष्ट पदार्थो का समुचित निष्काशन , शरीर एवं मन के बीच बेहतर समन्वय आव्श्कय है | उस काल में युद्धों एव शिकार में अनेक लोग घायल हो जाते थे | अनेक लोगो को दंडस्वरुप अपने अंग जैसे नाक , कान आदि गंवाने पड़ते थे | इस कारण शल्यचिकित्सा की बहुत आवश्यकता पडती थी |
आचार्य सुश्रुत Sushruta से पूर्व भी शरीर के एक अंग से मांस निकालकर दुसरे स्थान पर स्थापित करने का प्रचलन था पर आचार्य सुश्रुत ने इसे ओर अधिक प्रभावी बनाया | उन्होंने चेहरे आदि पर विकृतियों , कटी नाक के स्थान पर नई नाक स्थापित करने की विधिया विकसित की थी | इसके लिए उन्होंने ललाट से त्वचा लेना आरम्भ किया था | वो किसी एक स्थान से त्वचा लेकर दुसरे स्थान पर लगा देते थे | आज से 2000 वर्ष पूर्व आचार्य सुश्रुत की लोकप्रियता चरम सीमा पर पहुच गयी थी |
आचार्य सुश्रुत Sushruta की किताबी का कई विदेशी भाषाओ में अनुवाद हुआ था | अरबी अनुवाद “किताबे सुसतरन” का अरब जगत ने भरपूर लाभ उठाया था | इरानी चिकित्सा शास्त्री “राजी ” ने आचार्य सुश्रुत के ज्ञान पर आधारित पुस्तक लिखी जिसमे हल्दी एवं लहसुन आदि के गुणों का वर्णन किया गया | धीरे धीरे उनका ज्ञान रूस भी पहुचा और अंग्रेज मात्र 200 वर्ष पूर्व उनके प्लास्टिक सर्जरी को अपने यहाँ ले गये और आगे विकसित किया था |आचार्य द्वारा विकसित शल्यचिकित्सा विधि , पट्टी बाँधने , सिलने आदि की विधिया आज भी उपयोग में आती है | नागर्जुन नामक महान चिकित्सा शास्त्री ने ” सुश्रुत सहिंता ” का संपादन कर उसे नया स्वरुप प्रदान किया था | यह ग्रन्थ आज भी अनुसन्धान का विषय है | उनकी इन्ही सब खोजो के कारण उन्हें “विश्व के प्रथम शल्य चिकित्सक ” माना जाता है |
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